सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 : स्पष्ट दृष्टिकोणप्राक्कथन-
हम सभी करदाता हैं। एक राह चलता भिखारी भी बिक्री कर देता है, जब वह बाज़ार से कुछ खरीदता है। यह हमारा ही धन है, जो राष्ट्रीय, प्रादेशिक और स्थानीय योजनाओं में व्यय होता है। परन्तु यह धन जाता कहाँ है? क्यों अस्पतालों में दवायें नहीं मिलतीं? क्यों लोग भूख से मर रहे हैं? क्यों सड़कों की दशा शोचनीय है? क्यों सरकार द्वारा चलाई हुई योजनाओं का लाभ आम जनता तक नहीं पहुँच पाता ?
यह अधिनियम हमें सरकार से ऐसे प्रत्येक प्रश्न को पूछने का अधिकार देता है।सूचना का अधिकार अधिनियम भारत सरकार द्वारा प्रत्येक लोक प्राधिकारी के कार्यकरण में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के संवर्धन के लिये तथा लोक प्राधिकारियों के नियंत्रणाधीन सूचना तक नागरिकों की पहुँच सुनिश्चित करने के उद्देश्य से पारित किया गया है।इस अधिकार के अन्तर्गत नागरिक सरकार से प्रश्न कर सकते हैं, उनके अभिलेखों और दस्तावेजों का निरीक्षण कर सकते हैं। सरकारी प्रलेखों और दस्तावेजों की प्रतिकृति ले सकते हैं और सरकारी कार्यकरण का निरीक्षण भी कर सकते हैं।
अधिनियम: सन्क्षेप में
इस अधिनियम का मूल नाम सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 है। इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर सम्पूर्ण भारत पर है। संविधान की धारा 19(1) के अनुसार यह अधिनियम मूल अधिकारों का एक अंश है।धारा 19(1) के अनुसार प्रत्येक नागरिक को भाषण और विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है।यह अधिनियम 13 अक्तूबर ,2005 से प्रभावी है।
अधिनियम की विषयवस्तु-
लोकतन्त्र में जनता सरकार पर स्वामित्व करती है, अत: यह अधिनियम जनता को उसके अधिकारों से अवगत कराने और सार्वजनिक प्राधिकरणों से आवश्यक सूचना प्राप्त करने का एक साधन मात्र है।
उच्चतम न्यायालय के अनुसार इस अधिनियम की अनिवार्यता संविधान की आत्मा में निवास करती है और यह अधिनियम तीन सिद्धान्तों के कारण संविधान का एक अपरिहार्य अंग है-
1) प्रत्येक नागरिक को भाषण और अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है।
2)भारत एक लोकतन्त्र है, अत: इस पर जनता का स्वामित्व होना चाहिये।
3)प्रत्येक नागरिक करदाता है, अत: उसे पूर्ण अधिकार है यह जानने का कि उसका धन कहाँ पर और किस प्रकार व्यय हो रहा है ।
वस्तुत: सूचना का अधिकार एक मूल अधिकार है । किन्तु जनता को यह अधिकार देने के लिये यह अधिनियम एक अपरिहार्य आवश्यकता है क्योंकि इस अधिनियम के न होने की स्थिति में कोई भी सार्वजनिक प्राधिकरण अपनी कोई भी सूचना जनता को नहीं देगा। अत: इस मूल अधिकार के प्रयोग के लिये संविधान में एक नीतिगत ढाँचे, संगठन और कार्यप्रणाली की आवश्यकता थी जो इस अधिनियम से पूर्ण होती है।
अधिनियम द्वारा प्रदत्त अधिकार :
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अनुसार प्रत्येक नागरिक को अधिकार है-
1) सरकार से कोई भी प्रश्न पूछने का या कोई भी सूचना माँगने का
2) किसी सरकारी अभिलेख की प्रतिलिपि लेने का
3) किसी सरकारी अभिलेख का निरीक्षण करने का
4) किसी सरकारी कार्य का निरीक्षण करने का
5) किसी सरकारी कार्य से संबन्धित आँकड़ों के नमूने लेने का
अधिनियम का कार्यक्षेत्र :
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 जम्मू-कश्मीर राज्य के अतिरिक्त सम्पूर्ण भारत के लिये प्रभावी है।केन्द्रीय अथवा राज्य सरकार द्वारा स्थापित, गठित, उसके स्वामित्वाधीन, नियंत्रणाधीन अथवा उसके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गयी निधियों द्वारा पूर्णतया वित्तपोषित समस्त प्राधिकरण इस अधिनियम के अंतर्गत आते हैं। आंशिक रूप से वित्तपोषित प्राधिकरणों के लिये इस अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं है।
इस अधिनियम के अंश 22 के अनुसार इस अधिनयम का प्रभाव अध्यारोही है।अत: इस अधिनियम के उपबंध , शासकीय गुप्त बात अधिनियम 1923 और तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में या इस अधिनियम से अन्यथा किसी विधि के आधार पर प्रभाव रखने वाले किसी लेख में उससे असंगत बात के होते हुए भी प्रभावी होंगे।
अधिनियम की कार्यप्रणाली:
प्रत्येक सार्वजनिक विभाग में एक या अधिक वर्तमान अधिकारियों को सार्वजनिक सूचना अधिकारी मनोनीत किया गया है। यह सार्वजनिक सूचना अधिकारी केन्द्रीय अधिकारियों की भाँति कार्य करेंगे।इन अधिकारियों को ही सूचना प्राप्त करने हेतु प्रार्थनापत्र देना होगा। यह अधिकारी जनता द्वारा इच्छित सूचना को अपने विभाग के विभिन्न अंगों से एकत्र करके उस सूचना को जनता तक पहुँचाने के लिये उत्तरदायी होंगे। इसके अतिरिक्त कुछ अधिकारी सहायक सार्वजनिक सूचना अधिकारी भी मनोनीत किये गये हैं। इनका कार्य जनता से प्रार्थनापत्र स्वीकार करके उसे सार्वजनिक सूचना अधिकारी तक पहुँचाना मात्र है।
यदि सम्बद्ध अधिकारी या विभाग प्रार्थनापत्र को अस्वीकार कर दे, उस स्थिति में इस प्रार्थनापत्र को डाक माध्यम से भी भेजा जा सकता है। इसके अतिरिक्त नागरिक सम्बद्ध सूचना आयोग में अधिनियम के अंश 18 के अनुसार लिखित शिकायत भी दर्ज करा सकते हैं। सूचना आयोग अधिकारी को प्रार्थनापत्र अस्वीकार करने वाले अधिकारी पर अधिकतम 25,000 रुपये तक का दण्ड लगाने का अधिकार है।
अधिनियम के अनुसार प्रार्थनापत्र देने के 30 दिन के भीतर सूचना सम्बद्ध नागरिक तक पहुँचा देने का प्रावधान है। यदि प्रार्थनापत्र का विषय किसी व्यक्ति विशेष के जीवन और स्वाधीनता को प्रभावित करता है, उस स्थिति में सूचना प्रार्थनापत्र देने के 48 घण्टों के भीतर उपलब्ध करा दी जानी चाहिये ।
यह अधिनियम प्रभावी रहेगा- कारण
1) यह अधिनियम प्रभावी है।स्वतन्त्र भारत के इतिहास में पहली बार एक ऐसा विधान बना है, जो अधिकारियों को उनकी अकर्मण्यता के लिये उत्तरदायी ठहराता है।
2) यदि सम्बद्ध अधिकारी सूचना समय पर नहीं देता है , तो प्रत्येक दिन के विलम्ब के लिये सूचना आयोग अधिकारी 250 रुपये का दण्ड लगा सकता है।
3) यदि प्रदत्त सूचना असत्य पर आधारित है, तो एक अर्थदण्ड ,जो किसी भी दशा में 25,000 रुपये से अधिक नही होगा, लगाया जा सकता है।
4)अधूरी सूचना देने के लिये अथवा अकारण प्रार्थनापत्र निरस्त करने के लिये भी अर्थदण्ड का प्रावधान है, यह दण्ड अधिकारी की आय से काटा जायेगा।
इस अधिनियम की सफ़लता के कुछ उदाहरण:
1) महाराष्ट्र राज्य सरकार का कहना था कि पुलिस अधिकारियों के स्थानान्तरण में राजनीतिक हस्तक्षेप न के बराबर होता है। किन्तु मुम्बई पुलिस आयोग अधिकारी और महाराष्ट्र पुलिस निदेशक के विगत 19महीनों के कार्यकाल में मन्त्रियों और जन-प्रतिनिधियों के द्वारा स्थनान्तरण के लिये 481 अनुशंसायें भेजी गयीं।
मुम्बई पुलिस नियमावली के अतिक्रमण का पर्दाफ़ाश सूचना का अधिनियम 2005 के अन्तर्गत नागरिकों द्वारा दर्ज की गयी शिकायतों के आधार पर हुआ।
2) 20 सितम्बर,2006 को मध्य प्रदेश के राज्य पुलिस अध्यक्ष नियुक्त किये गये स्वराज पुरी इस अधिनियम के पहले शिकार बने।तीन महीने पूर्व प्रदत्त एक सूचना के आधार पर स्वराज पुरी की राज्यनिष्ठा के विरुद्ध एक शिकायत दर्ज की गयी थी, क्योंकि पुरी ने 2001 में अपने पुत्र के मध्य प्रदेश के एक इन्जीनियरिंग कालेज में प्रवेश हेतु अप्रवासी भारतीय प्रायोजित आरक्षण के अन्तर्गत फ़र्ज़ी प्रमाणपत्र बनवाया था।
अधिनियम द्वारा प्राप्त सूचना के आधार पर इन्दौर के विशेष न्यायालय ने राज्य सरकार की ओर से पुरी के खिलाफ़ भ्रष्टाचार, फ़रेब और धोखाधड़ी का मुकदमा दायर किया।
इसी प्रकार के अनेक ऐसे उदाहरण है, जिनके कारण विगत एक वर्ष में जनता को लाभ मिला है।
जन-जागरूकता में वृद्धि के प्रयास:
1) पारस्परिक सहयोग के द्वारा:
- प्रत्येक मंत्रालय के सार्वजनिक सूचना विभाग को जन-जागरूकता बढ़ाने के लिये सामग्री उपलब्ध करायी जाये और उन्हें अपने प्रबन्धतन्त्र का सूचना के प्रकीर्णन के लिये उपयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जाये।
- प्रत्येक मंत्रालय अपने संसाधनों और प्रबन्ध तन्त्र का उपयोग करे।
- विविध सामाजिक संगठनों द्वारा जन-जागरूकता के लिये वर्कशाप, नुक्कड़ नाटक और अन्य सूचना सत्र आयोजित किये जायें।
2) समाचार पत्र के माध्यम से:
- विभिन्न समाचार पत्रों द्वारा इस अधिनियम के समर्थन में जन-जागरण अभियान चलाये जायें।
- सरकार हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के अग्रणी दैनिक पत्रों में इस अधिनियम से सम्बन्धित सूचना निकलवाये।
3) दूरदर्शन और आकाशवाणी:
- मुख्य क्षेत्रीय भाषाओं में आकाशवाणी द्वारा इस अधिनियम पर शैक्षिक कार्यक्रम प्रसारित किये जायें।
- अन्य विषयों की तरह इस विषय पर भी विभिन्न मंत्रालयों के द्वारा दूरदर्शन पर सूचना प्रसारित हो।
- विभिन्न कहानियों और साक्षात्कारों के माध्यम से मीडिया के द्वारा।
4) इन्टरनेट:
- सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा विभिन्न माध्यमों से इन्टरनेट पर सूचना उपलब्ध कराई जाये।
5) अन्य सुझाव:
- इस विषय पर ध्यानाकर्षण हेतु पोस्टर निर्माण और निबन्ध लेखन की विविध प्रतियोगिताओं का आयोजन हो, इस अभियान में पुरस्कृत पृविष्टियों का उपयोग भी किया जा सकता है।
- डाक घर, संचार कार्यालयों और बैंकों में इस अधिनियम की पुस्तिकायें भी उपलब्ध कराई जायें।
- सिनेमाग्रहों में इस अधिनियम पर लघु फ़िल्में दिखाई जायें।
अधिनियम के मूल रूप की सुरक्षा:
वर्तमान परिदृश्यों में अधिनियम के मूल रूप की सुरक्षा एक महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि सरकार द्वारा किये गये सुधारों से इस अधिनियम का प्रयोग न के बराबर रह जायेगा। ब्रिटिश शासनकाल में पारित सरकारी गुप्त बात अधिनियम 1923 वैसे ही स्वाधीनता के 59 साल बाद आज भी नागरिकों के हितों के विरुद्ध एक अस्त्र की भाँति प्रयोग किया जाता रहा है। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के लागू होने से नागरिकों को पुन: अपनी स्वाधीनता का एहसास होने लगा था, किंतु यह अधिनियम भी कुछ सरकारी अधिकारियों की आँखों में खटक रहा है और वो इसमें सुधार करके इसे पंगु कर देना चाहते हैं।
सम्भावित परिवर्तन:
केन्द्र सरकार का मन्तव्य है कि इस अधिनियम मे फ़ाइल नोट्स को जनता को उपलब्ध कराने के सन्दर्भ में कोई नियम नहीं है। अत: सरकार इस सन्दर्भ में अधिनियम में संशोधन करना चाहती है।
वास्तविक परिदृश्य:
अधिनियम की धारा-2(च) में फ़ाइलों के विषय में नियम है और फ़ाइल नोट्स भी फ़ाइल का अभिन्न अंग होते हैं। अत: संशोधन की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु कुछ घृणित उद्देश्य रखने वाले लालफ़ीताशाह और नेता अपनी कलई खुल जाने के भय से इस अधिकार को मूल अधिनियम में बताने से कतरा रहे हैं और ऐच्छिक सुधार करके जनता को इन सूचनाओं से वंचित रखना चाहते हैं।
- इसके अतिरिक्त धारा 8(1) में एक और संशोधन विचाराधीन है।अधिनियम में उपलब्ध वर्तमान 10 अपवर्जित उद्धरणों के अतिरिक्त सरकार का विचार 3 और उद्धरण बढाने का है,जिससे इस अधिनियम का कार्यक्षेत्र सीमित और संकुचित रह जायेगा।
- वस्तुत: इस अधिनियम के अनुसार जो सूचना संसद के सदनों में उपलब्ध कराई जा सकती है, नागरिकों को वह सूचना देने से मना नहीं किया जा सकता।
- सरकार विभिन्न सरकारी सेवाओं में भर्ती से सम्बद्ध सूचना को भी इस अधिनियम के कार्यक्षेत्र से बाहर रखना चाहती है, जो कतई न्यायसंगत नहीं है।
प्रकीर्ण:
वस्तुत: सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 एक स्वस्थ लोकतंत्र की ऊर्जाशक्ति है। यदि जन-प्रतिनिधि इस अधिनियम के लिये जागरूकता फ़ैलायें,तो भ्रष्टाचार का अधिकांश भाग तो स्वत: ही समाप्त हो जायेगा।अत: इस अधिनियम के मूल रूप की सुरक्षा , लोकतन्त्र की एक महती आवश्यकता है।
मात्र इस अधिनियम से ही लोकतन्त्र का कल्याण सम्भव नहीं है। वास्तविक लोकतन्त्र की स्थापना तो तब होगी, जब नागरिक स्वयं अपने क्षेत्रों का शासन संचालन करेंगे। अत: इसके लिये हमें प्रतिनिधि लोकतंत्र से प्रत्यक्ष लोकतन्त्र की ओर जाने की आवश्यकता है।
स्थानीय शासन प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसके अनुसार नागरिक अपने क्षेत्रों की आम सभायें बनाकर संचालन करें।शक्ति और उत्तरदायित्व के स्थानीकरण से राजनीतिक अनुत्साह की भावना स्वत: समाप्त हो जायेगी।
अतएव सूचना का अधिकार अधिनियम के मूल रूप और प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के अधिकाधिक उपयोग में ही नागरिक अधिकारों की सम्पूर्ण स्वतन्त्रता निहित है।